मेरा खुदा ही मुझसे नाराज़ है।

उलझनें और उलज  जाती हैं , जो तेरा साथ ना हो
लम्हे कम पढ़ जाते हैं , हाथो मई जो तेरा हाथ न हो
कैसी यह बेरुखी ..क्यों यह अंदाज़ है
जीने की वजह हम  तलाशते हैं
मेरा खुदा ही  मुझसे नाराज़ है।

 आसमानों की रौशनी  मई भी लगता अँधेरा है
कैसी यह रात है जिश्का ना कोई सवेरा है
मेरी खामोशी .. मेरी बातें एक राज़ है
चाहे जितना भी मना लूँ उस धरकन को
मेरा खुदा  ही मुझसे नाराज़ है।

एक महफ़िल  थी ...अब तो तन्हाई है
कल था खुशनुमा .. आज तो दर्द की गहराई है
बातें ना रुकी कभी, अब न कोई अलफ़ाज़ है
चुप चुप के रोलूं ज़रा .. क्या करें
मेरा खुदा ही मुझसे नाराज़ है।


copyright, All Rights Reserved 2013, Richa Gupta





No comments:

Post a Comment